इंद्रदेव के छल से हुई कर्ण की मृत्यु
इंद्रदेव अर्जुन के पिता थे जबकि कर्ण महाभारत का एक ऐसा योद्धा जो शायद अर्जुन को भी हरा सकता था। अपने पिता सूर्यदेव से मिले कवच और कुंडल के कारण वो अमर था। उसे कोई नहीं मार सकता था, लेकिन युद्ध के दौरान अर्जुन के हाथों मारा गया।
इसके पीछे एक देवता का हाथ था। इंद्र देव स्वर्गलोक के राजा और अर्जुन के पिता जो अपने पुत्र की रक्षा करने के लिए कुछ भी कर सकते थे।
इंद्रदेव ने साधू वेश में कर्ण से किया छल
इंद्रदेव जानते थे कि युद्ध में अर्जुन और कर्ण का आमना सामना होना तय है। इसलिए 1 दिन युद्ध से पहले इन्द्र एक साधु के भेष में कर्ण के पास गए। उन्होंने छल से कर्ण के कवच और कुंडल दान में मांग लिये।
कर्ण को पता था की ये दरअसल इंद्रदेव है जो नहीं चाहते कि कर्ण अमर रहे फिर भी कर्ण ने, अपने कवच और कुंडल दान कर दिए और युद्ध में उसकी मृत्यु हो गई। और तो और आज को इंद्रदेव की बात क्यों नहीं करता, उनकी पूजा क्यों नहीं की जाती?
आज हम इंद्र से जुड़ी कुछ ऐसी कहानियों के बारे में बात करेंगे जो आपको हैरान कर देंगी।
वृत्र नाम के राक्षस ने इंद्रदेव के स्वर्ग को छीना
इंद्रदेव जिनका मुख्य अस्त्र वज्र हैं और जो एक चार दांतों वाले सफेद हाथी ऐरावत की सवारी करते हैं। वेदों के अनुसार इंद्रदेव ने कई बार देवताओं को और पूरे स्वर्ग को अनेक राक्षसों से बचाया था।
लेकिन जब एक बार वृत्र नाम के एक खतरनाक राक्षस ने स्वर्ग को अपने कब्जे में लेकर साथ ही धरती से सारा पानी भी चुरा लिया था। उस समय इंद्रदेव ने ये प्रण लिया था कि वह स्वर्ग को जीतने के साथ पृथ्वी पे पानी भी लौटाएंगे। पर वृत्र को मारना इतना आसान नहीं था, उसे एक वरदान मिला हुआ था।
वृत्र को किसी भी हथियार से हराया नहीं जा सकता था। इसलिए इसका हल निकालने के लिए इंद्र देव ब्रह्मा जी के साथ ऋषि दधीचि जी के पास गए। क्योंकि सिर्फ उनकी हड्डियों से ही एक ऐसा अस्त्र बनाया जा सकता था जिसे वृत्र को मारा जा सकता था और वैसा ही हुआ।
इंद्र के लिए ऋषि दधीचि ने अपने प्राण त्याग दिए
ऋषि दधीचि ने अपने प्राण त्याग दिए और उनकी हड्डियों से इंद्रदेव के वज्र का निर्माण हुआ जिसका इस्तेमाल करके इंद्रदेव ने वृत्र मार गिराया।
इस युद्ध के बाद सभी देवताओं ने इंद्रदेव से प्रसन्न होकर उन्हें अपना राजा घोषित किया था और इंद्र ने धरती पर वर्षा के रूप में पानी लौटा दिया। तब से उन्हें बादलों और वर्षा का देवता माना जाता है।
इंद्र के स्वर्ग में भोग विलास
इंद्र देव की पत्नी का नाम शचि था। हालांकि उनके कई अन्य स्त्रियों से संबंध भी थे। स्वर्ग की सभी अप्सराएं और गन्धर्व उनके आधीन थे और उनकी सेवा करते थे।
स्वर्ग के सबसे खूबसूरत बगीचे “नंदन का आनंद” में कल्पवृक्ष जैसे पेड़ थे। ये पेड़ किसी की भी कोई भी इच्छा पूरी करने के लिए जाने जाते थे।
जहाँ एक तरफ इंद्र के पास किसी भी चीज़ की कोई कमी नहीं थी वहीं असुरों के पास हर चीज़ की कमी थी इसलिए अक्सर स्वर्ग पे असुरों का आक्रमण हुआ करता था।
और इसके चलते इंद्रदेव अक्सर युद्ध में व्यस्त होते थे। ऐसा माना जाता है कि देवों की हमेशा विजय होती है।
इंद्र असुरों को हारने के लिए त्रिमूर्ति का सहारा लेते थे
लेकिन इंद्र की कहानी में विजय के साथ पराजय के भी किस्से पाए जाते हैं। इसलिए जब भी असुरों का पलड़ा भारी होता, इंद्रदेव त्रिमूर्ति ब्रहम्मा, विष्णु, महेश, की सहायता मांगते थे।
उनके सहारे इंद्र स्वर्ग को वापस पा लेते थे। लेकिन जब भी उनका स्वर्ग लोग सभी खतरों से सुरक्षित होता तब भी उन्हें अपना राज्य छीन लिए जाने की चिंता लगी रहती थी।
इंद्रदेव के डर का कारण
उनके इस डर का एक और कारण भी था।इस प्रथा के चलते कोई भी इंसान या देवता 1000 अश्वमेध यज्ञ करने से इंद्र की पदवी पा सकता था। इसलिए इंद्रदेव कभी भी पूरी तरह से निश्चिंत नहीं महसूस करते थे।
इस कारण इंद्र को लगने लगा कि दूसरों पर उनका पूरा अधिकार होना चाहिए। उन्होंने देवताओं के साथ पृथ्वी के लोगों में भी अपना डर फैलाना शुरू कर दिया।
इंद्रदेव कहना था कि अगर कोई भी उनके खिलाफ़ गया या किसी ने भी उनका निरादर किया तो वो वर्षा रोक देंगे।
अपनी फसलें बचाने के लिए पृथ्वी लोक के वासियों ने इंद्रदेव की पूजा करनी शुरू कर दी। इंद्रदेव हमेशा यज्ञ या तपस्या कर रहे इंसानों और ऋषियों से भयभीत रहते थे। उनके मन में एक ही विचार आता रहता था ये लोग कहीं तपस्या और यज्ञ करके मुझसे मेरा सब कुछ छीन ना ले।
इंद्रदेव द्वारा लोगों की तपस्या और यज्ञ में बाधा डाली जाती थी
इंद्रदेव नई नई तरकीबों से लोगों की तपस्या और यज्ञ में बाधा डालने की कोशिश करते थे। ऐसे ही 1 दिन जब इंद्रदेव ने गुरु विश्वामित्र को तपस्या में लीन देखा तो उन्होंने मेनका नाम की एक अप्सरा को उनके पास ध्यान भंग करने भेजा और ऐसा करने में वो सफल रहे।
इंद्रदेव के अहंकार के साथ उनकी काम वासना
इंद्रदेव के अहंकार के साथ उनकी काम वासना भी कम नहीं थी और इस बात का प्रमाण हमें अहिल्या की कहानी से मिलता है। अहिल्या महर्षि गौतम की पत्नी जिनकी सुंदरता के चर्चित तीनों लोकों में हुआ करते थे।
इंद्रदेव उनकी कहानियों से इतने प्रभावित हुये की एक बार उन्होंने अहिल्या के साथ समय बिताने का फैसला किया। यह जानते हुए कि वो शादीशुदा थीं। इंद्रदेव अहिल्या से मिलने पृथ्वीलोक आये, एक दिन जब महर्षि गौतम अपने घर से बाहर गए हुए थे तब इन्द्र देव ने महर्षि गौतम का भेष बनाया और अहिल्या के सामने उनके पति के रूप में प्रकट हो गए।
इंद्रदेव ने अहिल्या को उनसे संबंध बनाने को कहा। लेकिन कुछ ही समय में अहिल्या को ये एहसास हो गया की वो उनके पति नहीं थे। अपने आप को उनसे दूर कर जब अहिल्या ने सवाल किए तो उन्हें पता चला कि वो दरअसल इंद्रदेव थे।
इंद्रदेव की काम वासना
पर जब महर्षि गौतम वापस आए और उन्होंने ये सब देखा तो वो बहुत क्रोधित हो गए। उन्होंने अहिल्या को एक पराये पुरुष के साथ देखकर उन्हें श्राप दे दिया की वो पत्थर की बन जाएगी और उन्हें तब तक मुक्ति नहीं मिले गी जब तक स्वयं भगवान विष्णु आकर अहिल्या को स्पर्श ना करे।
वाल्मीकि रामायण के बालकांड में बताया गया है की जब श्रीराम अहिल्या के पास आकर उनके पत्थर के रूप को छूते हैं, तब उन्हें इस श्राप से मुक्ति मिल जाती है।
इंद्रदेव को महर्षि गौतम ने दिया श्राप
इंद्रदेव को भी महर्षि गौतम ने एक भयानक श्राप दिया और श्राप ये था कि इंद्रदेव के शरीर पर 1000 योनियां आ जाएँगी। इस श्राप के मिलने के बाद इंद्रदेव की हालत बहुत बुरी हो गई थी।
किसी भी देवता से उनका ये रूप देखा नहीं जा रहा था, इसलिए देवताओं ने ब्रह्मदेव की सहायता मांगी। ब्रह्मदेव के कहने पर इंद्र ने शिवजी का ध्यान किया और शिवजी ने खुश होकर इंद्रदेव के शरीर की योनियों को आँखों में बदल दिया। इसी लिए इंद्र को 1000 आँखों वाले देवता भी कहा जाता था।
इंद्रदेव की महत्वता हुई कम
इंद्र को इस श्राप से मुक्ति मिल गई पर इन्हीं सब के कारण धीरे धीरे उनकी महत्त्व अता कम होने लगी। यही कारण है कि जहाँ एक तरफ वेदों में एक चौथाई श्लोक केवल इंद्र के गुणगान करते हैं वहीं दूसरी तरफ वेदों के बाद लिखे पुराणो की कहानियों में उन्हें अधिक महत्व नहीं दिया जाता है।
पुरानो, रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों में उनकी ईर्ष्या साफ नजर आती थी। इंद्रदेव का अहंकार इतना बढ़ गया था कि अगर कोई भी पृथ्वी लोक पर उनकी पूजा नहीं करता तो वो उन्हें वर्षा रोक कर के दंड देते, लेकिन अब समय आ गया था इस अहंकार को तोड़ने का।
इंद्र के अहंकार को भगवान् कृष्ण ने तोड़ा.
वृंदावन के गांव में एक दिन इंद्र की बहुत बड़ी पूजा की तैयारी की जा रही थी। वहाँ रहने वाले 7 साल के श्री कृष्ण के मन में प्रश्न आया कि आखिर ये सब किस देवता को प्रसन्न करने की कोशिश है? तभी उन्हें वृंदावन के लोगों ने बताया कि यह पूजा इंद्र के लिए की जा रही थी ताकि वर्षा होती रहे।
यह सुनते ही श्रीकृष्ण ने कहा कि इंद्र देव की वजह से वर्षा नहीं होती, यह सुन सभी चौंक गए।
गोवर्धन पर्वत को पूजने की वजह
श्री कृष्ण ने उन्हें समझाया की वर्षा इंद्र की वजह से नहीं बल्कि गोवर्धन पर्वत की वजह से होती है। गोवर्धन पर्वत बदलो को आकर्षित करता है इस वजह से वर्षा होती है। श्री कृष्ण ने कहा पूजा तो गोवर्धन पर्वत की होनी चाहिए गांव के लोगो ने ऐसा ही किया, जब यह इंद्र को पता चला तो वे अत्यधिक क्रोधित हुए।
इंद्र ने क्रोध में आकर वृंदावन पर 7 दिनों तक घोर वर्षा की। भगवान् कृष्ण ने वृंदावन के लोगो को इस वर्षा से बचाने के लिए गोवर्धन पर्वत को अपनी छोटी सी ऊगली पर उठा लिया। वृंदावन के के सभी लोग सात दिन तक इस पर्वत के निचे रह कर इस तेज वर्षा से बचे रहे।
यह सब देख इंद्र भयभीत हुए और उनका अहंकार टूट गया। उस दिन से लोगो ने गोवर्धन पर्वत को पूजना शुरू कर दिया। श्री कृष्ण ने कहा की मनुष्य को अपने अंतर्मन के भगवान् को पूजना चाहिए।
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